नारी, मर्यादा और मोह: शिक्षा, समाजशास्त्र और महिला विमर्श का त्रिकोणीय विश्लेषण

नारी, मर्यादा और मोह: शिक्षा, समाजशास्त्र और महिला विमर्श का त्रिकोणीय विश्लेषण

समाज की संरचना में स्त्री और पुरुष के संबंधों का गहरा स्थान है। यह संबंध केवल जैविक या पारिवारिक नहीं है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक स्तर पर गहराई से जुड़ा हुआ है। जैसे-जैसे समय बदला, शिक्षा का प्रसार हुआ, स्त्री चेतना जागी और समाज में आधुनिकता का प्रवेश हुआ, वैसे-वैसे स्त्री-पुरुष संबंधों की प्रकृति में भी गहरा परिवर्तन आया। इस लेख में हम इस परिवर्तन को गेसा परंपरा, पारंपरिक भारतीय समाज, आधुनिक नग्नता, शिक्षा की भूमिका, और स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करेंगे।

जापान की गेसा गर्ल्स हमें यह सिखाती हैं कि मोह केवल देह से नहीं, अधूरेपन और रहस्य से उपजता है। उन्हें शिक्षा दी जाती है कि कभी पूर्ण रूप से उपलब्ध न हो—क्योंकि आकर्षण की समाप्ति वहीं से शुरू होती है, जहाँ कोई पूर्णतः मिल जाता है। यह सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र दोनों में स्वीकार्य है: इच्छा वहीं टिकती है, जहाँ पूर्णता नहीं होती। यही तत्व ‘गेसा’ को एक कलात्मक और मानसिक स्तर पर उच्च स्थान पर रखता है।
पारंपरिक भारतीय समाज में स्त्री का स्थान घूंघट, मर्यादा और सीमाओं में था। स्त्री का रहस्य उसके अस्तित्व का हिस्सा था। आधुनिकता और शिक्षा के प्रसार के साथ जैसे-जैसे स्त्री सामाजिक जीवन में आई, उसका शरीर, सोच और भाषा—तीनों खुलने लगे। यह स्त्री के अधिकार और आत्मनिर्भरता की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक परिवर्तन था। लेकिन इसके साथ-साथ एक सामाजिक चुनौती भी आई—क्या अब मोह उतना गहरा रहा जितना पहले था?
शिक्षा ने स्त्री को आत्म-निर्भर, स्वतंत्र और विचारशील बनाया—यह उसकी सामाजिक मुक्ति की आधारशिला थी। परंतु समाजशास्त्रीय दृष्टि से यह भी देखा गया कि जब स्त्री-पुरुष संबंधों में रहस्य घटा, संवाद अधिक हुआ, शरीर अधिक दृश्य हुआ—तो आकर्षण और मोह की प्रवृत्ति में बदलाव आया। यह कहना अनुचित न होगा कि शिक्षा ने ‘स्त्री’ को अधिकार तो दिया, परंतु साथ ही समाज से वह ‘अपरिचित मोह’ भी छीना गया, जो सीमाओं से उपजता था।
नारीवाद की एक धारा यह कहती है कि स्त्री का शरीर उसका अपना है और उसे जैसे चाहे प्रस्तुत करने का अधिकार है। यह अधिकार निश्चित ही आवश्यक है। लेकिन वहीं एक दूसरी विचारधारा यह भी कहती है कि जब स्त्री स्वयं को केवल देह में सीमित कर देती है, तो वह पुरुषवादी उपभोग की दृष्टि को ही पुष्ट करती है। स्त्री विमर्श का गहन पक्ष यह है कि स्त्री का सौंदर्य केवल दृश्यात्मक नहीं, बल्कि बौद्धिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक रहस्य में छिपा होता है। वह रहस्य जब उजागर हो जाता है, तब मोह टूटता है।
समाजशास्त्र यह स्पष्ट करता है कि जहां बाधा होती है, वहीं लालसा होती है। यही कारण है कि ढकी हुई चीज अधिक आकर्षक लगती है। जब समाज ने स्त्री पर वर्जनाएं रखीं, तब उसके प्रति पुरुष का आकर्षण दीर्घकालिक बना रहा। जब समाज ने उन वर्जनाओं को हटाया, तब आकर्षण का स्थान ‘उपयोग’ ने ले लिया। इससे संबंधों की गहराई में गिरावट आई—मोह, प्रतीक्षा, प्रेम—all replaced by momentary interactions.
यह अनुमान किया जा सकता है कि आने वाले वर्षों में समाज पुनः संतुलन की ओर लौटेगा। स्त्रियों के वस्त्र फिर बड़े होंगे, बातचीत फिर संयमित होगी, और संबंधों में फिर से प्रतीक्षा और रहस्य का स्थान आएगा। यह न तो पिछड़ेपन की ओर लौटना होगा, न दमन की पुनरावृत्ति, बल्कि यह होगा संवेदनशील आधुनिकता की स्थापना—जहां शिक्षा, अधिकार और मोह—तीनों साथ होंगे।
शिक्षा ने स्त्री को मुक्त किया, समाजशास्त्र ने उसके संबंधों की परतें खोलीं और स्त्री विमर्श ने उसे अपनी पहचान दी। अब ज़रूरत है कि इन तीनों को संतुलन के साथ जोड़ा जाए, ताकि न मोह टूटे, न स्वतंत्रता बाधित हो, और न समाज में संबंधों की गरिमा कम हो।
मोह वहाँ जीवित रहता है, जहाँ प्रतीक्षा होती है। प्रतीक्षा वहाँ टिकती है, जहाँ संयम होता है। और संयम वहाँ जन्मता है, जहाँ शिक्षा और संवेदना साथ चलते हैं।

राहुल पांडे अविचल

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