ईरान-इज़रायल युद्ध और भारत की राह: दिल और दिमाग के बीच फंसी एक राष्ट्रनीति

ईरान-इज़रायल युद्ध और भारत की राह: दिल और दिमाग के बीच फंसी एक राष्ट्रनीति

लेखक: राहुल पांडे 'अविचल'

जब दो राष्ट्र युद्ध की आग में झुलस रहे हों, तब केवल तलवार नहीं, विवेक भी बोलता है। ईरान और इज़रायल के बीच उठती यह ज्वाला न सिर्फ पश्चिम एशिया, बल्कि भारत के दिल और सोच को भी झकझोर रही है।

भारत आज एक कठिन मोड़ पर खड़ा है —
एक ओर इज़रायल है, जो वर्षों से भारत का रक्षा साथी रहा है, जिसने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहने की मिसाल दी है।
दूसरी ओर ईरान है, हमारी ऊर्जा का स्रोत, हमारी संस्कृति का साझेदार और चाबहार बंदरगाह जैसा रणनीतिक सहयोगी।

लेकिन सिर्फ बाहर की दुनिया नहीं, भारत का मन भी दो खेमों में बँटा है।
कुछ लोग इज़रायल के साहस और निर्णायक कार्रवाई के प्रशंसक हैं,
तो कुछ ईरान को साम्राज्यवाद के खिलाफ एक प्रतिरोध की आवाज़ मानते हैं।

तो भारत को क्या करना चाहिए?

भारत को भावनाओं से नहीं, बुद्धिमत्ता से चलना होगा।
हमें युद्ध नहीं, शांति का पक्ष लेना चाहिए।
हमें किसी की आँधी में उड़ने के बजाय अपना संतुलन साधना होगा —
जहाँ इज़रायल से हमारी रक्षा की दीवार मज़बूत हो,
और ईरान से हमारी ऊर्जा और रणनीतिक पहुँच बनी रहे।

भारत को चाहिए कि वह आवाज़ बने —
बम की नहीं, बुद्धि की।
वर्चस्व की नहीं, विवेक की।
विभाजन की नहीं, संतुलन की।

क्योंकि भारत का रास्ता न पूर्व है, न पश्चिम — भारत का रास्ता हमेशा "समरसता" का रहा है।

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