वर्तमान अफगान संकट और भारत का नजरिया
राहुल पाण्डेय 'अविचल'
रूस को हटाने के लिए अमेरिका ने तालिबान जैसे लोगों की उपज की परिस्थिति को जन्म दिया था। रूस बाद में विखंडित हुआ। चेचेन्या विद्रोह के कारण रूस का काफी नुकसान हुआ। तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। ओसामा बिन लादेन ने अलकायदा को अफगानिस्तान की जमीन से मजबूत किया। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले में शामिल 19 लोगों में 15 लोग सऊदी अरब के थे। अमेरिका ने इराक और तालिबान को निशाना बनाया। उस कट्टर तालिबान को पाकिस्तान और सऊदी अरब सहित तीन देश मान्यता दे चुके थे। अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बेदखल किया। इतने लंबे संघर्ष में अमेरिका ने 2200 सैनिकों/नागरिकों को खोया। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास किया। हामिद करजई हो या अशरफ गनी ये दोनों अमेरिका की छत्रछाया में राष्ट्रपति बने। भारत ने 22 हजार करोड़ का अफगानिस्तान में निवेश किया। सड़क, संसद व अस्पताल का निर्माण कराया। अमेरिका के डेढ़ लाख सैनिकों ने अफगानिस्तान में मोर्चा संभाला था। तीन लाख अफगानिस्तान सैनिकों की भर्ती हुई। सब पैसा और धन के लालच में सेना में शामिल हुए। उनमें देश के प्रति कोई समर्पण नहीं था। खुद राष्ट्रपति ही डरपोक और कायर था। अमेरिका में यह आवाज उठने लगी कि अमेरिका में ऐसी सरकार हो जो बाहर के देशों में हस्तक्षेप न करे। इससे अमेरिका अफगानिस्तान छोड़ने की योजना बनाने लगा। दूसरी तरफ तालिबान गांवों में स्थानीय नागरिकों से बातचीत करने लगा। जैसे ही अमेरिकी और नाटो सैनिक अफगानिस्तान से हटे, तालिबान ने तेजी से अफगानिस्तान पर कब्जा करना शुरू कर दिया। अमेरिकी खुफिया एजेंसी पूर्णतया असफल रही।
भारत को अफगानिस्तान पर पूर्ण नज़र रखनी चाहिए। भारत ने लोकतंत्र की स्थापना के लिए अफगनिस्तान में पूर्ण सहयोग किया। भारत को भरोसा था कि अफगानिस्तान के नागरिक लोकतंत्र पर भरोसा करेंगे। अब इस नए तालिबान के रुख को देखना होगा की यह कट्टर तालिबान है कि इसमें कुछ परिवर्तन हुआ है। भारत को अपने नागरिकों को सुरक्षित वहाँ से निकालना होगा। इसके साथ ही भारत के सामने दो और चुनौती होगी कि अफगानिस्तान में किये गए अपने निवेश को व्यर्थ होने से बचाना होगा क्योंकि अब उसपर तालिबान का कब्जा होगा। पाकिस्तान में भी तालिबान दख़ल देगा अतः इस तरफ भी अपना ध्यान आकृष्ट करना होगा। वह दिन दूर नहीं जब तालिबान से प्रेरित होकर पाकिस्तान में पख्तून भी बग़ावती तेवर में आ सकते हैं। अंग्रेजों के समय में जब डूरंड लाइन वहां तय की गई थी जिसके दोनो तरह पख्तूनों की आबादी थी। देश तो बंट गए पर पख्तूनों ने कभी बॉर्डर को नहीं माना। वहां से लोगों का आना जाना जारी रहा। अब जब यह तय हो गया कि अब अमेरिका पाकिस्तान और अफगानिस्तान में दखल नहीं देगा और लड़ाकू कौम ही सियासत करेगी तो डूरंड बॉर्डर पर गहमागहमी की स्थिति जल्द दिखाई पड़ सकती है। अतः भारत को अपनी विदेश नीति को अत्यधिक सक्रिय करना होगा।
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