क्षमा की शक्ति
क्षमा की शक्ति
महाभारत केवल एक युद्ध का ग्रंथ नहीं है — वह मनुष्य के अंतःकरण का दर्पण है। उसमें न केवल धर्म और अधर्म का संघर्ष है, बल्कि भावनाओं, निर्णयों और मानवीय दुर्बलताओं की गहरी व्याख्या भी है। इसी महाकाव्य में क्षमा की वह अद्भुत झलक मिलती है जो युगों तक मानवता को दिशा देती रही है — और इस सत्य का सर्वोत्तम उदाहरण हैं महारानी द्रौपदी, पांडव और महात्मा विदुर।
जब कौरव सभा में महारानी द्रौपदी को लाया गया, तब वह क्षण केवल एक स्त्री के अपमान का नहीं, बल्कि धर्म की परीक्षा का था। सभाभवन में उस समय उपस्थित थे – पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, आचार्य कृपाचार्य, और चाचा विदुर। सभी धर्म और नीति के रक्षक माने जाते थे। किंतु सत्ता, भय और कर्तव्य के जाल में फंसे उन श्रेष्ठजनों के बीच केवल एक व्यक्ति था जिसने अधर्म के विरुद्ध आवाज़ उठाई — विदुर।
विदुर ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी —
“राजन! यह अधर्म है। जो पुरुष अपनी सभा में धर्मपत्नी का अपमान सह लेता है, वह अपने कुल का नाश स्वयं करता है। जहां स्त्री रोती है, वहां लक्ष्मी निवास नहीं करती। तुम अपने पुत्रों को रोक लो, अन्यथा विनाश निश्चित है।”
किन्तु धृतराष्ट्र का मोह इतना गहरा था कि विदुर के शब्द व्यर्थ गए। भीष्म मौन रहे, द्रोणाचार्य असमंजस में थे, और सभा में धर्म हार गया। पर विदुर का वह विरोध इतिहास में धर्म की अंतिम ज्योति बनकर अमर हो गया।
द्रौपदी ने उस क्षण अपमान सहा, पर धर्म नहीं छोड़ा। उन्होंने प्रतिशोध को अपने धर्म का आधार नहीं बनाया। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ और कुरुक्षेत्र की भूमि रक्त से लाल थी, तब भी उन्होंने धर्म का दामन नहीं छोड़ा।
युद्ध के बाद जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पांचों पुत्रों की निर्मम हत्या की, तब पूरा पांडव परिवार शोक से व्याकुल था। भीमसेन ने प्रतिशोध की आग में अश्वत्थामा की मृत्यु की मांग की। पर उसी क्षण द्रौपदी ने आगे बढ़कर कहा —
“यह ब्राह्मणपुत्र है, इसे दंड देना उचित नहीं। इसने भले ही मेरा हृदय छलनी कर दिया हो, परंतु इसका जीवन भी उसी परमात्मा की देन है। यदि हम भी इसे मार देंगे, तो इसमें और हममें क्या अंतर रहेगा?”
उनके इन शब्दों ने धर्म की व्याख्या ही बदल दी। उन्होंने दिखा दिया कि क्षमा दुर्बलता नहीं, बल्कि ईश्वरत्व की अवस्था है।
पांडवों ने भी यही मार्ग अपनाया। उन्होंने न तो गुरु द्रोण के प्रति द्वेष रखा, न भीष्म के प्रति, और न ही चाचा विदुर से कोई शिकायत की — क्योंकि वे जानते थे कि जो धर्म के लिए बोला, वह विदुर ही थे, और जो धर्म के लिए लड़ा, वह भी उन्हीं के मार्ग पर चले।
विदुर ने जीवनभर सत्य का साथ नहीं छोड़ा। जब धृतराष्ट्र ने उनकी बातें अनसुनी कर दीं, तब भी उन्होंने क्रोध नहीं किया। उन्होंने कहा —
“मैं वही कहूंगा जो धर्म है, चाहे वह तुम्हें प्रिय लगे या अप्रिय। अधर्म की चुप्पी सबसे बड़ा पाप है।”
और द्रौपदी ने अपने कर्मों से सिद्ध किया कि धर्म की पराकाष्ठा प्रतिशोध में नहीं, क्षमा में है।
महाभारत का यह प्रसंग केवल इतिहास नहीं, बल्कि जीवन का दर्पण है। आज भी जब समाज हिंसा, अपमान और प्रतिशोध की आग में जलता है, तब द्रौपदी, विदुर और पांडवों का यह आचरण हमें याद दिलाता है कि –
“असली विजय तब होती है, जब हम अपने क्रोध पर विजय प्राप्त कर लें।”
क्षमा करना भूलना नहीं होता; यह वह निर्णय होता है जब मनुष्य यह तय करता है कि वह अपने मन की शांति को किसी के अपराध की भेंट नहीं चढ़ाएगा।
महात्मा गांधी ने कहा था —
“कमज़ोर कभी क्षमा नहीं कर सकता, क्षमा तो शक्तिशाली का गुण है।”
और वास्तव में, द्रौपदी, विदुर और पांडवों ने यह सिद्ध किया कि शक्ति का सर्वोच्च रूप विनाश नहीं, बल्कि क्षमा है।
क्षमा वह प्रकाश है जो धर्म को अमर बनाता है।
क्षमा वह ज्योति है जो हृदय को शुद्ध करती है।
क्षमा वह शक्ति है जो मनुष्य को ईश्वर के निकट ले जाती है।
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