हमारा बचपन और गौरैया

हमारा बचपन और गौरैया बचपन में गौरैया हमारे जीवन का हिस्सा थी। नर और मादा दोनों तरह की गौरैया पायी जाती थी। इनका घोसला जो कि घास फूस का होता था। कच्चे मकान में इन्हें घोसला बनाने में सुगमता होती थी। सुबह-सुबह आंगन में दाना फेंक दिया था। जब ये आकर दाना चुंगती थी तो बहुत अच्छा लगता था। कभी-कभी इनके बच्चे मिल जाते थे तो उन्हें पकड़ने की इच्छा होती थी। मगर जब यह बताया जाता कि इनको छूने से इनकी माँ इन्हें बहिष्कृत कर देगी तो फिर इनसे दूरी बना ली जाती थी। समय के साथ मोबाइल टावर की तरंगों ने इनकी राह चलने की क्षमता छीन ली। प्रदूषण से इनका नुकसान होने लगा। पक्के मकानों ने इनके रहने की व्यवस्था छीन ली। नुकीले पौधों पर ये घोंसले नहीं बना पाती थीं। अब तो शहरों से बिल्कुल विलुप्त हो चुकी हैं। गांव में भी अब इन्हें विलुप्त देखा जा रहा है। आज हम अपने बच्चों को गौरैया का एहसास नहीं दिला सकते हैं। मगर गौरैया की यादें हमें अपने बचपन की याद दिला रहीं हैं। जिसे भी गौरैया दिखे उन्हें बचाने की कोशिश होनी चाहिए। उनकी रक्षा होनी चाहिए। अब तो बस इनकी यादें वर्ष में एक दिन के लिए सीमित कर दी गयी हैं।...